उत्पीड़न: पाकिस्तान में हिंदू आबादी सिर्फ डेढ़ फीसदी रह गई

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बांग्लादेश में आज भी एक करोड़ से अधिक हिंदू बचे रह गए हैं। वे भी 1947 में आबादी के तेईस प्रतिशत थे। उनकी जो प्रताड़ना हो रही है, मानवाधिकार हनन की जो वीभत्स स्थिति है, वह हमारी चर्चाओं का हिस्सा ही नहीं बन पाता। इस्कॉन मंदिर पर हमला, पुजारियों की हत्या तो अभी हाल की ही बात है। इतने वर्षों में संभवतः पहली बार बांग्लादेश के हिंदुओं की प्रताड़ना का विषय अंतरराष्ट्रीय मंच पर आया था। एक बड़ी बांग्लादेशी आबादी भारत में अवैध निवास कर रही है और वहां बांग्लादेश के हिंदू मजहबी कट्टरता के शिकार हो रहे हैं।

विश्व में सुरक्षित एनक्लेव के उदाहरण बहुत से स्थानों पर हैं। सिंध और बांग्लादेश के हिंदुओं ने न तो कोई संघर्ष छेड़ा, न ही उनमें सुरक्षित स्वायत्त परिक्षेत्रों की समझ ही विकसित हुई। वे शोषण और अत्याचार झेलते रहे। हमने देखा है कि सैन मारिनो और लेसोथो क्रमशः इटली व दक्षिण अफ्रीका में स्वायत्त एनक्लेव हैं। युद्ध के दौरान ही रूस ने अभी-अभी यूक्रेन के रूसी बहुल क्षेत्रों के लिए डोनबास में दो परिक्षेत्रों लोहांस्क व डोनास्क की घोषणा कर भी दी है। सन 1950 में हुए नेहरू-लियाकत समझौते से पूर्व पाकिस्तान में हिंदू-ईसाई की प्रताड़ना चरम पर थी। उस समय नेहरू को स्वायत्त परिक्षेत्रों के विचार पर बल देकर अल्पसंख्यकों की स्वायत्तता सुनिश्चित करानी चाहिए थी, पर ऐसा नहीं हुआ। भारत में तो अल्पसंख्यकों की आदर्श स्थिति बनी रही, जबकि पाकिस्तान में वह कौन-सा अत्याचार है, जो वहां के अल्पसंख्यक समाज पर नहीं टूटा!

अल्पसंख्यकों के मानवाधिकार की दृष्टि से पाकिस्तान व बांग्लादेश में स्वायत्त सुरक्षित परिक्षेत्रों की मांग यदि भारत द्वारा संयुक्त राष्ट्र में पुरजोर तरीके से उठाई जाती, तो वह इन देशों को रक्षात्मक होने को बाध्य करती। वे अल्पसंख्यकों को मौलिक अधिकार देने को मजबूर हो जाते। यह अवसर हमारे सम्मुख आज भी उपलब्ध है। आवश्यकता सबल इच्छाशक्ति की है।

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