मौसम : जलवायु परिवर्तन का नतीजा है तेज गर्मी, पूरा विश्व इससे हो रहा प्रभावित वैभव चतुर्वेदी

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भारतीय मौसम विभाग ने हाल ही में पूर्वानुमान व्यक्त किया था कि दिल्ली और भारत के कई दूसरे हिस्सों में पूरे अप्रैल के दौरान लू या गर्म हवाएं चलेंगी। जलवायु परिवर्तन को ऐसे समझा जा सकता है कि हमने मार्च में ज्यादातर समय सर्द मौसम देखा और अप्रैल की शुरुआत में सीधे चिलचिलाती धूप में पहुंच गए हैं। प्रत्यक्ष तौर पर महसूस हो रहा यह परिवर्तन चिंताजनक है। हाल ही में जारी इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) मूल्यांकन रिपोर्ट में ग्लोबल वार्मिंग को सीमित करने के उपाय बताए गए हैं। इसके अनुसार, भारत और पूरे विश्व को सभी क्षेत्रों में डिकार्बोनाइजेशन (कार्बन उत्सर्जन घटाने) के लिए तेजी से आगे बढ़ना चाहिए।
आईपीसीसी की रिपोर्ट बीते छह-सात वर्षों में एक व्यवस्थित वैज्ञानिक अनुसंधान से जुटाए गए साक्ष्यों का मूल्यांकन करती है। आईपीसीसी के तीन कार्य समूह (वर्किंग ग्रुप) तीन पहलुओं- जलवायु विज्ञान और प्रभाव, अनुकूलन और सुभेद्यता (आईएवी), और शमन (मिटिगेशन) का अध्ययन करते हैं। उत्सर्जन सीमित करने के विकल्पों पर ध्यान केंद्रित करते हुए तीसरे कार्य समूह के मूल्यांकन में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि पूरे विश्व को 2019 और 2030 के बीच अपना उत्सर्जन घटाकर लगभग आधा करने की जरूरत है, ताकि वर्ष 1850 की तुलना में औसत वैश्विक तापमान बढ़ोतरी 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के उचित अवसर मिल सकें। उत्सर्जन के मौजूदा स्तर को देखें तो अभी पूरा विश्व 2.5 से 3.4 डिग्री सेल्सियस के बीच तापमान बढ़ोतरी के रास्ते पर आगे बढ़ रहा है। इस बात से इसके प्रभावों का अनुमान लगा सकते हैं कि बार-बार गर्म हवाएं या लू चलना, चक्रवात आना या ऐसी अन्य जलवायु आपदाएं, जिनका भारत भी सामना कर रहा है, वैश्विक तापमान में सिर्फ 1.1 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी के नतीजे हैं। आईपीसीसी के मूल्यांकन के अनुसार, इस दशक में और आगे के समय में ग्लोबल वॉर्मिंग को सीमित करने के उपायों में तेजी लाने के लिए कई तरह के कदम उठाने की जरूरत है। तापमान बढ़ोतरी को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने में अगर कार्बन, कैप्चर और स्टोरेज (सीसीएस) तकनीक शामिल नहीं है, तो 2030 तक कोयले की वैश्विक खपत को कम से कम 67 प्रतिशत तक घटाना होगा।
वर्ष 2050 तक कुल ऊर्जा में बिजली की हिस्सेदारी 48 प्रतिशत तक पहुंचनी है। वर्ष 2050 तक उत्पादित लगभग संपूर्ण बिजली का उत्पादन कम कार्बन स्रोतों से करना होगा। अगर नेट-जीरो कार्बन डाइऑक्साइड या ग्रीन हाउस गैस (जीएचजी) उत्सर्जन का लक्ष्य पाना है, तो अति-आवश्यक ऊर्जा जरूरतों से होने वाले उत्सर्जन को संतुलित करने के लिए कार्बन डाईऑक्साइड को हटाने (सीडीआर) की तकनीक का इस्तेमाल करना बहुत जरूरी है। ऊर्जा की मांग को घटाना भी महत्वपूर्ण है। इसके लिए शहरी परिवहन और भवन निर्माण क्षेत्रों में ऊर्जा की मांग घटाने के लिए शहरी नियोजन और शहर को नए सिरे से विकसित करना बहुत जरूरी है। अंत में, कम कार्बन उत्सर्जन वाली प्रौद्योगिकियों का विकास, उपयोग और हस्तांतरण में तेजी लाने के लिए नई व्यवस्थाओं की भी जरूरत है। आईपीसीसी की मूल्यांकन रिपोर्ट के ये निष्कर्ष भारत के लिए वर्ष 2070 को नेट-जीरो वर्ष घोषित करने के बारे में सीईईडब्ल्यू के आकलन के अनुरूप है। ग्लासगो में आयोजित कॉप-26 से दो हफ्ते पहले प्रकाशित सीईईडब्ल्यू के अध्ययन में सुझाव दिया गया था कि कोयला आधारित बिजली उत्पादन को 2040 के आसपास अधिकतम स्तर तक पहुंचाने और उसके बाद घटाने की जरूरत है। इसके अलावा अगले दो दशकों में इलेक्ट्रिक वाहनों की बिक्री में उल्लेखनीय बढ़ोतरी करनी होगी और उद्योग में लगने वाली दो-तिहाई ऊर्जा का विद्युतीकरण भी करना होगा। यह भी बताया गया था कि भवन निर्माण और औद्योगिक क्षेत्र में प्रौद्योगिकियों की ऊर्जा दक्षता में पर्याप्त बढ़ोतरी करनी होगी।
संक्षेप में कहें तों आईपीसीसी के मूल्यांकन का यह अर्थ है कि दुनिया 1.5 डिग्री सेल्सियस का लक्ष्य हासिल कर पाए, इसके लिए भारत की ऊर्जा प्रणालियों में बड़े पैमाने पर बदलाव करने की जरूरत है। भारत की ऊर्जा संबंधी जरूरतें कोयले पर बहुत ज्यादा निर्भर हैं। भारत के 75 प्रतिशत से ज्यादा कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन के लिए औद्योगिक क्षेत्र में लगने वाली ऊर्जा और बिजली उत्पादन जिम्मेदार हैं। खास तौर पर, इसकी वजह बिजली उत्पादन और औद्योगिक क्षेत्रों में कोयले का इस्तेमाल है। भारत का 85 प्रतिशत से ज्यादा कोयला इस्तेमाल बिजली क्षेत्र में होता है। निश्चित तौर पर, आईपीसीसी रिपोर्ट का मतलब है कि भारत को इस दशक में अपने कोयला आधारित बिजली उत्पादन घटाने पर ध्यान देने की जरूरत होगी। सबसे अंत में, आईपीसीसी मूल्यांकन बताता है कि कार्बन प्राइसिंग (कार्बन मूल्य निर्धारण) जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को रोकने के लिए एक महत्वपूर्ण साधन बन सकता है। अगर राजस्व को नए सिरे से बांटा जाए और उसे बगैर किसी पक्षपात के उपयोग किया जाए तो यह काफी ज्यादा प्रभावी हो सकता है। यह महत्वपूर्ण है, क्योंकि भारत अपना घरेलू कार्बन मार्केट तैयार करना चाहता है। इसके लिए पहले से ही प्रयास शुरू हो चुके हैं, और ऊर्जा दक्षता ब्यूरो (बीईई) इसकी अगुवाई कर रहा है। कार्बन उत्सर्जन की कीमत तय करने के प्रयास बहुत महत्वपूर्ण होंगे। अगर इसे पूरक नीतियों का समर्थन मिल जाए, तो यह भारत के लिए नेट-जीरो संबंधी दीर्घकालिक प्रतिबद्धता को हासिल करने का प्रमुख उपकरण बन सकता है। कुल मिलाकर, आईपीसीसी का मूल्यांकन बेहद सख्त चेतावनी देता है। (- लेखक, स्वतंत्र गैर-लाभकारी नीति शोध संस्थान, काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वाटर (सीईईडब्ल्यू) में फेलो हैं।)

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