कहानी: कर्मभूमि

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संध्या हो चली थी, दूर डूबते सूरज से आकाश रक्तरंजित हो चला था। गोधुलि से वह आकाश अब मृदामय भी लग रहा था। पक्षियों की तीव्र चहचहाट से ऐसा लग रहा था कि उनका समूह भी देवदत्त की भांति अपने गन्तव्य पर जाने को विकल थे।
आज देवदत्त पूरे एक वर्ष बाद घर लौट रहा था। एक वर्ष का अन्तराल उसे युगो समान लग रहा था। घर तक कच्ची सड़क पर गाड़ी न जाने पर वह उसे गांव जाने वाली सड़क पर ही छोड़ आया था और वह एक किसान की बैलगाड़ी पर सवार था।
कुछ किसान अपने कार्य निवृत्ति के बाद घर की ओर प्रस्थान कर रहे थे और कहीं अभी भी खेतो में अनाज की ढेरियां बन रहीं थी। दूर से देखने पर ऐसा प्रतीत होता था मानो सर्वत्र कंचन बह रहा था।
वहीं दूर बच्चे पहिये को गाड़ी समान लुढ़काकर ले जा रहे थे। कभी देवदत्त को भी इन सबमें बड़ा आनंद आता था। आनंद का क्या कहे वह तो उन्माद था उन दिनो। उसकी बाल स्मृतियां अब दूर छिटपुट दिखते तारो की तरह प्रज्जवलित हो रही थी।
मेहनत तो सभी किसान करते है पर देवदत्त के पिता जगत भाग्य के भी बलि थे। उनकी फसल वर्ष के अंत तक औरों से दुगुनी ही बैठती। जगत नित सपना सजाते कि वह कैसे अपनी फसल और बढ़ायें और जीवन की गाड़ी को आगे बढ़ायें और देवदत्त तो उस बछड़े की भांति था जिसका बैलरूपी पिता दिनभर थककर आने के बाद अपने पुत्र को खेलता बढ़ता देख आनंदित होता था।
देवदत्त को उच्च शिक्षा दिलाने के सपनें उसके पिता जगत से दुगना परिश्रम करवाते। देवदत्त को गांव के प्राथमिक शिक्षा के बाद शहर भेजने की योजना बनी और उसके माता पिता ने इसमें कोई कसर नहीं छोड़ी।
पिता पुत्र की मेहनत का ही परिणाम था कि अब देवदत्त अपनी शिक्षा समाप्त कर शहर में उच्च पद पर आसीन था। अब गांव से उनका साथ छूटता जा रहा था।
जगत की फसल में भी अब वह दम नहीं रहा था। कभी बारिश जो तांडव करती तो असमय गेहूं की फसल बर्बाद हो जाती और कभी तूफान आता तो मक्का की फसल चैपट कर जाता। जो जगत कभी कंचन उगाता था अब ऋण के बोझ से दबा था।
आज देवदत्त पिता को ऋणमुक्त कराकर हमेशा के लिए अपने माता पिता को शहर ले जाने के लिए आया था। अब देवदत्त अपने उसी घर में था जहां मां अपने कच्चे चूल्हे पर पहले की भांति रोटी बना रही थी। अपनी पिता की कमर उसे कुछ उम्र कुछ ऋण के बोझ से झुकी जान पड़ती थी। देवदत्त का दर्द अब चरमोत्कर्ष पर था। जो किसान पूरे राष्ट्र के लिए भोजन का प्रबंध करता है। उसका यह हाल क्या उचित है? उसने जगत को अपने आने का प्रायोजन बताया। खाना खाकर आंगन में पड़ी खाट पर वह सो गया।
एक सप्ताह वहां रहकर देवदत्त ने अपने पिता का सारा ऋण चुका दिया। जब वह जंगल से शहर चलने की जिद करने लगा तब जगत उसे लेकर खेत पर गया।
खेत पकी हुई गेहूं की बालियों से लदा हुआ था। जगत बोला ‘‘मेरी एक एक अंगुल भूमि मेरे पसीने की बूंदो से सीचीं हुई है। मेरी सभी इच्छायें और आशायें इसी जमीन पर अवलम्बित है। इसके बिना तो मेरे जीवन का कोई असतित्व ही नहीं है।
देवदत्त को चुप देखकर जगत आगे बोला ‘‘यह मेरी माटी है जो सोना उगलती है। साल भर मेहनत करने के बाद कनक से भरे अपने खेतों की स्वर्णिम आभा को देखकर मुझे लगता है कि मैंने मानो सारे जहां का सुख पा लिया। खराब मौसम और विपरीत परिस्थितियां ही वह चुनौतियां हैं जो हमें सशक्त और प्रखर बनाकर दोबारा खड़े होेने का हौसला देती है। जिस प्रकार तेज बारिश हवा और आंधियों को झेलकर हम इन गेहूं की बालियों की स्वर्णिम आभा निखकर आती है। इसी प्रकार अगर जग विजय करना है तो चुनौतियां तो स्वीकार करनी होगी। शहर तुम्हारा कार्य स्थल है और मेरे यह खेत मेरी कर्मभूमि है। जहंा हम दोनो को अपना अपना जीवन समर्पित करना है।’’
देवदत्त मौन था पिता के आगे पूरी तरह नतमस्तक हो गया था।

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