कहानी: नीम का पेड़

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जैसे शांत तालाब के किनारे आते जाते पथिक उसमें पत्थर डालकर हलचल पैदा कर देते हैं उसी तरह से दीनानाथ जी का षांत मन भी पिछले एक माह से विचलित हो रहा था।
उनके दोनो पुत्र पिछले एक माह से उनके सामने विषम समस्या उत्पन्न कर रहे थे। यह उनका सरल स्वभाव था या अपने पुत्रों के प्रति लगाव कि वह कोई निर्णय नहीं ले पा रहे थे और उनकी मांग को लगातार टालने का प्रयास कर रहे थे।
और आज तो जब उनकी अर्धागिंनी शांति देवी ने भी बच्चों के समर्थन में अपना मत दे दिया था तब से वह और बेचैन हो उठे थे। दैनिक क्रियाओं से निवृत्त होने के बाद पूजा में भी उनका मन नहीं लगा तथा जलपान किये बिना ही उठ गए और जा बैठे अपने पुराने सखा आंगन में सालों से खड़े नीम के पेड़ तले।
बेहद अंतर्मुखी दीनानाथ जी जन्म से ही बहुत परिश्रमी व जुझारू प्रवृत्ति के व्यक्ति थे। अपने पिता के द्वारा स्थापित किए हुए व्यापार को अपनी लगन और कर्मठता से उन्होनें बहुत ऊंचाईयों पर ला दिया था। सरलता तो जैसे उनका जीवन था, कभी किसी से छल कपट करना तो उन्होनें जाना ही नहीं था। पिता जी से उनका सौम्य और सरल स्वभाव उन्होनें विरासत में जो पाया था। और मां ने तो हमेशा विपरीत परिस्थितियों में भी मुस्कुराते रहना सिखाया था।
जबसे उन्होनें होस संभाला घर के आंगन में खड़े नीम के पेड़ को एक पारिवारिक सदस्य के रूप में जाना।
आज भी याद आता है उन्हें उस पेड़ के इर्द गिर्द अपनी बहन के साथ लुका छुपी खेलना, विद्यालय से आने के बाद पेड़ के नीचे बैठकर गृह कार्य करना और शाम को मां के आंचल तले कहानियां सुनना। सावन में नीम की डाल पर झूला डाल कर घंटो वह अपनी बहन को झुलाया करते।
पिताजी रोज सवेरे नीम का दातून कराया करते और दादी वह तो न जाने क्या क्या करती थीं। कभी नीम की पत्तियों को तोड़कर पानी में डालकर उबालती और उन्हें निलहाती और कभी दोनो भाई बहनों में से किसी को बुखार आ जाने पर उनका बिछोना ही नीम का कर देती थी।
द्वेष क्या होता है यह तो उन्होनें जाना ही न था। अपनी बहन के साथ नित नई बात पर झगड़ते व शाम को उसे ही मनाने का न जाने कितने प्रयास करते।
नीम के चबूतरे में न जाने कितने पैसे पिता जी से लेकर उन दोनो भाई बहन ने छुपाये थे। वही उनका उस समय का सबसे बड़ा खजाना था। वह राज केवल दोनो भाई बहनों तक ही रहता था और रहता भी क्यों न उसका साक्षी था वह नीम का पेड़ जो उनका परम मित्र था।
एक बार उनके कस्बे में एक महामारी फैली जिसके चलते आस पड़ोस के लोग नीम के पेड़ के पत्ते ले जाने लगे। दोनो भाई बहन उस समय ऐसा महसूस करते थे कि जैसे उनकी सबसे प्रिय चीज कोई उनकी आंखो के सामने चुरा रहा है।
दादी लाख उन्हें समझाती कि पत्ते ले जाने देना बहुत पुण्य का काम है। पर दोनो भाई बहन हर किसी को द्वार से ही लौटा देने की पूरी कोशिश करते। न जाने कितनी अनगिनत यादें उनकी उस नीम के पेड़ के साथ थीं।
दादी का देहांत तो कुछ समय बाद ही हो गया था। बहन भी ब्याह कर अपने घर चली गयी। उनका विवाह हुआ और शांति के साथ ही उनके जीवन में दोनो पुत्र रवि और किशोर आये।
कुछ समय बाद माता पिता ने भी दीनानाथ जी का साथ छोड़ दिया।
जितना प्रेम वह अपनी बहन से करते थे उसका एक अंश भी उन्होने अपने दोनो पुत्रो में नहीं देखा। दोनो पुत्र परस्पर विरोधी विचारधारा के बहुत महत्वकांक्षी व अल्प समय में ही सबकुछ पा लेने की इच्छा रखने वाले थे।
उन्होनें अपना सारा व्यापार दोनो पुत्रों को सौंपकर एक तरह से सेवानिवृत्ति पा ली थी। वह अपना सारा समय घर पर शांति और अपने परम मित्र नीम के पेड़ के साथ गुजारना चाहते थे। परस्पर विरोधी स्वभाव के चलते दोनो भाई कभी भी एक मत नहीं हुए और उन्होनें अलग होने का फैसला कर लिया।
जब उन्हेें अलग होना था तो घर का भी दो हिस्सो में बंट जाना स्वभाविक था। पर एक बड़ा प्रश्नचिन्ह खड़ा हो गया था घर को समान रूप से दो हिस्सो में बांटने में अगर कोई बाधक था तो वह था आंगन के बीचोबीच खड़ा नीम का पेड़।
पिछले एक माह से दोनो पुत्र और अब उनकी पत्नी शांति भी उस पेड़ को काटने के समर्थन में थे और वह, वह तो जैसे स्तब्ध थे। इस बात की तो उन्होनें कभी कल्पना भी नहीं की थी। वह पेड़ नहीं उनका सखा था बचपन से उनका परम सखा।
आज दोनो पुत्रों ने मकान के नक्शा बनाने वाले को बुलाया था। अपनी मां को दोनो ने बड़े प्यार से समझा दिया था कि वह बारी बारी दोनो माता पिता को रखेंगे।
दीनानाथ जी सोच विचार में डूबे नीम के पेड़ के चबूतरे पर आकर आंख मूंदकर बैठ गये थे। उन्हें ऐसा लग रहा था कि वह आज भी अपनी मां की गोदी में सर रखकर बैठे हैं। तभी कुछ पत्ते उनके ऊपर आकर गिरे मानो उनकी मां अपनी उंगलियों से उनके बाल सहला रही थी।
पत्तों की सरसराहट ने जैसे उनके कानो में कुछ कह दिया था। उन्हें अपनी समस्या का समाधान मिल गया था। वह मुस्कुरा उठे क्योंकि अब वह पूर्णतः चिंतामुक्त थे।
शाम को जब दोनो पुत्रों ने अपनी बात दोहराई तो उनकी पत्नी शांति ने भी बेटों के समर्थन में कहा यह बूढ़ा पेड़ आधुनिक समय में किसी काम का नहीं है तो इस पेड़ के कटने के साथ ही दोनो बेटों के आशियाने बनने दो।
हमेशा शांत और मौन रहने वाले दीनानाथ जी ने अपना फैसला कुछ इस प्रकार सुनाया-‘‘तुम दोनो अब सामथ्र्यवान हो और जब तुम्हारा साथ रहना सम्भव नहीं है तो अपना आशियाना स्वयं बनाओ और जब चाहेा यहां घूमने आ सकते हो। यह बूढ़ा नीम का पेड़ और मैं हमेशा अपनी बांहे फैलाये तुम्हारे स्वागत को तैयार हैं।

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