मायावती को अपना राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा बचाने की जुगत !

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अशोक भाटिया

लोकसभा चुनाव की दृष्टि से उत्तर प्रदेश देश का सबसे अहम राज्य है जहां से निचले सदन (लोकसभा) के लिए 80 सांसद चुने जाते हैं। लोकसभा चुनाव 2024 में बसपा ही एक ऐसी पार्टी है जो उत्तरप्रदेश में अकेले चुनाव लड़ रही है। भाजपा, कांग्रेस दोनों पार्टियां उत्तरप्रदेश में गठबंधन के साथ चुनाव लड़ रही है। लेकिन बसपा 80 सीटों पर अकेले दम पर ही चुनाव लड़ रही है। पहले पांच चरणों के मतदान के बाद की ग्राउंड रिपोर्ट से संकेत मिलता है कि बसपा के लिए 2019 के उस प्रदर्शन को दोहरा पाना मुश्किल होगा जब उसे 10 सीटें मिली थी।

पिछले दिनों प्रचार अभियान के दौरान, बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने वादा किया था कि अगर उनकी पार्टी राज्य की सत्ता में आती है, तो वह इन जिलों को मिलाकर एक अलग राज्य (पश्चिमी उत्तर प्रदेश) बनाएंगी। यह पहली बार नहीं है कि बसपा अध्यक्ष ने उत्तर प्रदेश को छोटे भागों में बांटने की बात कही है। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या बसपा का यह चुनावी दांव उसे सियासी फायदा दिला पायगा? इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि क्या इससे बसपा उत्तर प्रदेश में अपनी गिरती चुनावी साख को फिर से पुनर्जीवित कर पाएगी?

राजनीतिक विश्लेषकों के लिए बसपा हमेशा से एक पहेली रही है। कई बार पार्टी के पतन की भविष्यवाणियां की गई लेकिन संकट के समय में बसपा अधिक ताकत के साथ वापस लौटी। हालांकि, राष्ट्रीय स्तर की पार्टी बनने की बसपा की महत्वाकांक्षा निर्विवाद रूप से ख़त्म हो गई है। 2022 के विधानसभा चुनाव में पार्टी के खराब प्रदर्शन के बाद पार्टी के उत्तरप्रदेश में एक महत्वपूर्ण सियासी दल के रूप में फिर से उभरने की संभावनाएं कुछ खास नहीं दिख रही हैं।

बसपा ने अपनी चुनावी यात्रा 1980 के दशक में शुरू की और अनुकूल जातीय समीकरणों और बढ़ती प्रतिस्पर्धा के कारण चुनावों के दौरान वह उत्तरप्रदेश के अंदर अपना वोट शेयर लगातार सफलतापूर्वक बढ़ाते चले गई। बसपा का शुरूआती दौर 1993 के विधानसभा चुनावों तक चला जब दलित मतदाता ही बसपा का कोर वोटर माना जाता था और पार्टी दोहरे अंकों तक भी अपनी सीटें नहीं पहुंचा पा रही थी।

1993 का विधानसभा चुनाव बसपा ने समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन में लड़ा और शानदार जीत हासिल करते हुए 67 सीटें जीतीं। सपा नेता मुलायम सिंह यादव बसपा और अन्य दलों के समर्थन से मुख्यमंत्री बने। इस दौरान कांशीराम और मायावती ने धीरे-धीरे अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लोगों के बीच अपनी पार्टी के सामाजिक आधार का विस्तार करने की कोशिश की। इससे बसपा को सबसे पिछड़े वर्गों (एमबीसी) के बीच बढ़त हासिल करने में मदद मिली। यह ऐसा वर्ग था जो यादव और लोध जैसे उच्च ओबीसी के प्रभुत्व से नाराज था।

1999 से 2014 के बीच उत्तरप्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की किस्मत में बड़ा सियासी उलटफेर तब हुआ तब बसपा ने खुद को सपा के प्राथमिक विकल्प के रूप में स्थापित कर लिया। 2004 के लोकसभा चुनावों के बाद, मायावती ने अपनी पार्टी के संदेश को “बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय” से “सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय” में बदलकर एक मास्टरस्ट्रोक खेला।

दलितों, एमबीसी और ऊंची जातियों को एक साथ लाने के प्रयोग से बसपा को अपने दम पर बहुमत हासिल करने में मदद मिली। 2007 के राज्य विधानसभा चुनावों में उत्तरप्रदेश में पार्टी का वोट शेयर 25 प्रतिशत को पार कर गया। कई लोग मानते हैं कि 2000 के दशक में बसपा उम्मीदवार इस बात से पूरी तरह आश्वस्त हो गए थे कि दलित वोट बैंक उनका पक्का वोटर हो गया है।

लेकिन 2014 के लोकसभा चुनावों में, पार्टी को अपने वोट शेयर में गंभीर गिरावट का सामना करना पड़ा क्योंकि दलित मतदाताओं का एक वर्ग भाजपा की तरफ शिफ्ट हो गया था और इसकी वजह से बसपा का वोट प्रतिशत 20 प्रतिशत से भी कम हो गया। हालांकि 2017 के उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव में उसे 22।2 प्रतिशत वोट मिले, लेकिन पार्टी मुश्किल में रही। उत्तरप्रदेश में 2019 के लोकसभा चुनाव में एसपी के साथ गठबंधन बनाने के अप्रत्याशित दांव से उतना चुनावी लाभ नहीं मिला। गठबंधन के बावजूद, भाजपा राज्य में सबसे अधिक सीटें जीतने में सफल रही।

बसपा दलित मतदाताओं के बीच अपने घटते जनाधार को रोकने में विफल रही और इसका फायदा बीजेपी को मिला जिसने बसपा की सियासी जमीन को हथिया लिया। इसके अलावा, पार्टी ने धीरे-धीरे कई अन्य समूहों के बीच भी अपना समर्थन खो दिया। पिछले चुनावों में कुर्मी, कोइरी, राजभर, निषाद आदि जैसी कई पिछड़ी जातियां और मुसलमानों की निचली जातियां जो बड़ी संख्या में बसपा के पक्ष में आई थीं वो अब उसके पाले से छिटक गईं। 2014 के लोकसभा चुनावों के बाद से बसपा ने इन मतदाताओं के बीच अपनी पैठ नहीं बना सकी।

2017 के विधानसभा चुनाव के बाद पार्टी और कमजोर हो गई। इससे पहले, 2014 के लोकसभा और 2017 के विधानसभा चुनावों में इसे राज्य में 20 प्रतिशत से अधिक वोट मिले थे। हालांकि 2019 में बसपा को 19 प्रतिशत वोट मिले और वह गठबंधन के तहत 10 सीटें जीतने में कामयाब रही। लेकिन यह साफ हो गया था कि पार्टी पार्टी अपने अपने बदौलत चुनाव नहीं जीत सकी था। बसपा ने सपा के आधार का सहारा लिया।

2007 में पार्टी 310 सीटों पर या तो जीती या उपविजेता रही और यह संख्या 2012 में मामूली गिरावट के साथ 289 सीटों पर आ गई। 2017 के चुनावों में यह तस्वीर काफी हद तक बदल गई जब उसने सिर्फ 19 सीटें जीतीं और केवल 119 सीटों पर दूसरे स्थान पर रही। 2012 और 2017 के विधानसभा चुनावों के बीच बसपा का वोट बैंक बड़ी तेजी से उसके पाले से खिसक गया। कुल मिलाकर, 2012 की तुलना में 295 निर्वाचन क्षेत्रों में वोट शेयर में गिरावट आई और केवल 108 निर्वाचन क्षेत्रों में वृद्धि हुई।

राज्य में 2022 के विधानसभा चुनावों ने दलितों के मूल आधार के बीच भी पार्टी का समर्थन कम होते चला गया। पार्टी ने बमुश्किल केवल एक सीट जीती (और 18 सीटों पर दूसरे स्थान पर रही) और कुल वोटों का 12।8 प्रतिशत हासिल किया। बड़ी संख्या में पार्टी के उम्मीदवारों की जमानत तक जब्त हो गई।

चुनाव बाद सर्वेक्षण के आंकड़े बताते हैं कि राज्य में आधे से भी कम दलितों ने पार्टी को वोट दिया। एक चौथाई जाटव और लगभग आधे गैर-जाटव दलितों ने भाजपा को वोट दिया। पार्टी के निराशाजनक प्रदर्शन से संकेत मिलता है कि राज्य में सत्ता के दावेदार के रूप में वापसी के लिए उसे वोट शेयर में पर्याप्त बढ़ोतरी हासिल करनी होगी।

2007 में उत्तरप्रदेश में बहुमत हासिल करने के बाद 2009 के लोकसभा चुनावों में, बसपा और मायावती ने दिल्ली में बड़ा पद हासिल करने का लक्ष्य रखा। लेकिन यह अवसर जल्दी ही ख़त्म हो गया। लोकनीति द्वारा एकत्र किए गए सर्वेक्षण के आंकड़े मायावती की घटती लोकप्रियता को रेखांकित करते हैं। राजनीतिक प्रचार की उनकी पिछली शैली, जो पूरी तरह से जाति की पहचान के इर्द-गिर्द केंद्रित थी, वह दो कारणों से दलित मतदाताओं के बीच कम होती चले गई।

सबसे पहले, पिछले कुछ वर्षों के दौरान दलितों के बीच एक नया वर्ग उभरा है, जो आधुनिक सोच के साथ-साथ आकांक्षी भी है। यह समूह मोदी की राजनीति की शैली को अधिक पसंद करता है, जो अपनी पिछड़ी जाति की पहचान पर गर्व का दावा करते हुए आर्थिक बदलाव की बात करते हैं। दूसरा, भ्रष्टाचार के मामलों, सत्ता के केंद्रीकरण और बसपा के वैचारिक संदेश के कमजोर होने के कारण मायावती की छवि धूमिल हो रही है। इसके अलावा, मायावती ने अपनी संगठनात्मक मशीनरी को फिर से विकसित करने, नेतृत्व की दूसरी पंक्ति को प्रोत्साहित करने या एक विश्वसनीय राजनीतिक संदेश देने का कोई गंभीर प्रयास नहीं किया है।

हालांकि यह सच है कि मायावती के नेतृत्व ने पार्टी को अपनी पार्टी का विस्तार करने में मदद की जिसकी कल्पना कांशीराम द्वारा की गई थी। बसपा ने खुद को एक सामाजिक आंदोलन से राजनीतिक पार्टी में बदल दिया। बसपा ने धीरे-धीरे खुद को एक आंदोलन-आधारित पार्टी से अलग-अलग राजनेताओं के एक समूह में बदल लिया, जो विशुद्ध रूप से व्यावहारिक कारणों से अन्य पार्टियों से अलग हो गए थे। पार्टी, उसके कार्यकर्ताओं और मतदाताओं के बीच संबंध तेजी से लेन-देन वाले हो गए। सुप्रीमो-केंद्रित पार्टी अंततः एक ही परिवार द्वारा नियंत्रित पार्टी बन गई।

मायावती ने पिछले साल अपने भतीजे आकाश आनंद को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया, जो तब से पार्टी के अभियान का सबसे प्रमुख चेहरा रहे हैं। हालांकि, आनंद ज़मीन पर अपनी राजनीतिक क्षमता साबित करने में असफल रहे व उन्हें पार्टी की जिम्मेदारी से मुक्त कर दिया गया है। मायावती सहित बसपा के अधिकांश शीर्ष नेता (हालांकि उनमें से अधिकांश ने या तो पार्टी छोड़ दी है या उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है) उत्तर प्रदेश में 2024 के चुनाव अभियान से काफी हद तक साइडलाइन हैं।

मायावती के समर्थकों और विरोधियों के बीच चर्चा है कि वह काफी दबाव में हैं क्योंकि उन्हें कथित भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच कर रहे प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और अन्य केंद्र सरकार एजेंसियों की कार्रवाई का डर है। इसने राजनीतिक प्रक्रिया में सक्रिय रूप से शामिल न होने और विपक्षी इंडिया गुट में शामिल होने के लिए गंभीर प्रयास न करने के उनके निर्णयों को प्रभावित किया है। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि बसपा वास्तव में ऐसे उम्मीदवार उतार रही है जो उत्तर प्रदेश की कई सीटों पर इंडिया ब्लॉक की संभावनाओं को नुकसान पहुंचाएंगे।

क्या पश्चिमी उत्तरप्रदेश में मायावती के अभियान से बसपा को कोई उम्मीद की किरण नजर आ रही है? उत्तरप्रदेश की बढ़ती द्विध्रुवीय राजनीति में बसपा अब पूरी तरह से हाशिए पर चली गई है और ऐसी संभावना है कि 2024 में बसपा का वोट शेयर कम हो सकता है।

गौरतलब है कि देश के बहुदलीय संसदीय लोकतंत्र के अब तक के चुनावी सफर में राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक पार्टियों के लिए अपने अस्तित्व के साथ सियासी प्रासंगिकता बनाए रखना कम चुनौतीपूर्ण नहीं है। इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 1952 में हुए पहली लोकसभा के चुनाव में जहां 14 राष्ट्रीय पार्टियां चुनावी अखाड़े में मौजूद थीं तो 2024 में होने जा रहे लोकसभा के चुनाव में राष्ट्रीय स्तर की छह पार्टियां ही मैदान में होंगी। इसमें आम आदमी पार्टी और नेशनल पीपुल्स पार्टी जैसी दो नई पार्टियां शामिल हैं, जिन्हें अभी कुछ समय पहले ही राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा मिला है। कांग्रेस ही एक ऐसी राष्ट्रीय पार्टी है, जो पहले आम चुनाव से लेकर अब तक के सभी चुनावों में अपना राष्ट्रीय स्वरूप कायम रख पाई है। बीते 72 वर्ष में अब तक करीब 33 पार्टियों ने राष्ट्रीय दल का दर्जा गंवाया है तो दर्जनभर से ज्यादा पार्टियों का अस्तित्व नहीं बचा है। लोकसभा के पहले चुनाव में उतरीं 14 राष्ट्रीय पार्टियों में से कांग्रेस को छोड़कर बाकी 13 का राष्ट्रीय दर्जा नहीं बचा है। पिछले वर्ष दर्जा छिनने के चलते भाकपा इस रिकॉर्ड में कांग्रेस से पिछड़ गई है तो पहले चुनाव में रही अधिकांश पार्टियां के अस्तित्व का अता-पता नहीं है। 1952 में जहां सबसे अधिक 14 राष्ट्रीय पार्टियां मैदान में थी तो 1957 में दूसरे आम चुनाव में सबसे कम केवल चार राष्ट्रीय पार्टियां कांग्रेस, भाकपा, भारतीय जनसंघ और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी मैदान में थीं। 2024 के चुनाव में जो छह राष्ट्रीय पार्टियां मैदान में होंगी, उनमें भाजपा, कांग्रेस, बसपा, माकपा के अलावा आप और एनपीपी हैं। अब 2024 के चुनाव का परिणाम तय करेगा कि कौन राष्ट्रीय पार्टी रहती है और कौन दर्जा खोती है ।

अशोक भाटिया

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