एजेंसी समाचार
नई दिल्ली। चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट से कहा है कि चुनाव से पहले या बाद में किसी भी मुफ्त उपहार की पेशकश संबंधित पार्टी का नीतिगत फैसला है। ऐसी नीतियां आर्थिक रूप से व्यवहार्य हैं या प्रतिकूल असर डालती हैं, यह उस राज्य के मतदाताओं द्वारा तय किया जाना है। अपने हलफनामे में चुनाव आयोग ने कहा कि भारत का चुनाव आयोग राज्य की नीतियों और निर्णयों को नियंत्रित नहीं कर सकता है, जो जीतने वाली पार्टी द्वारा सरकार बनाने के बाद लिए जाते हैं। आयोग ने कहा कि कानून में प्रावधानों को सक्षम किए बिना इस तरह की कार्रवाई करना अतिरेक होगा।
चुनाव आयोग ने कानून मंत्रालय को भेजी सिफारिशें
इसमें कहा गया है कि दिसंबर 2016 में राजनीतिक दलों से जुड़े सुधारों के संबंध में चुनाव सुधारों पर 47 प्रस्तावों का एक सेट केंद्र को भेजा गया था, जिनमें से एक अध्याय ‘राजनीतिक दलों के पंजीकरण को रद्द करने’ से संबंधित था। आयोग की ओर से यह भी बताया गया कि भारत के चुनाव आयोग ने कानून मंत्रालय को किसी राजनीतिक दल का पंजीकरण रद्द करने की शक्तियों का प्रयोग करने और राजनीतिक दलों के पंजीकरण और पंजीकरण रद्द करने को विनियमित करने के लिए आवश्यक आदेश जारी करने में सक्षम बनाने के लिए सिफारिशें की हैं।
आयोग ने कहा कि जहां तक याचिकाकर्ता अश्विनी कुमार उपाध्याय की प्रार्थना है कि चुनाव आयोग को निर्देश दिया जा सकता है कि वह उस राजनीतिक दल का चुनाव चिन्ह/पंजीकरण रद्द करे जो सार्वजनिक निधि से मुफ्त उपहार का वादा करता है। सुप्रीम कोर्ट ने 2002 के अपने फैसले में निर्देश दिया था कि चुनाव आयोग के पास तीन आधारों को छोड़कर किसी राजनीतिक दल का पंजीकरण रद्द करने का कोई अधिकार नहीं है।
इन तीन आधारों में शामिल हैं- किसी राजनीतिक दल द्वारा धोखाधड़ी या जालसाजी करके पंजीकरण हासिल करना, किसी पंजीकृत राजनीतिक दल एसोसिएशन, नियमों और विनियमों के अपने नामकरण में संशोधन करना और चुनाव आयोग को सूचित करना कि उसका संविधान के प्रति विश्वास और निष्ठा समाप्त हो गई है। तीसरे मामले में ऐसा कोई भी आधार शामिल है जहां आयोग की ओर से किसी तरह की जांच की जरूरत नहीं होती है।
चुनाव आयोग के पास इन तीन आधारों को छोड़कर किसी राजनीतिक दल का पंजीकरण रद्द करने की कोई शक्ति नहीं है।