कविता: नवप्रभात

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नीले अम्बर की ओढ़ चुनरिया,
निशा चली प्रियतम प्रभात से मिलने।
चुनरी पर टंगे है अनगिनत तारे,
लगते ये सब कितने प्यारे।
झिलमिल-झिलमिल जब मुस्कुराते,
रूप निशा का और बढ़ाते।
निशा भी है कुछ खोई-खोई,
जागी फिर भी सोई-सोई।
मुख चुनरी में रही छुपाये,
धीमे-धीमे पर मुस्काये।
प्रिय-मिलन के स्वप्न सजाये,
संग पवन के बढ़ती जाये।
सखी भोर को लेकर साथ,
आ पहुंची प्रियतम के द्वार।
एक झलक जो प्रिय की पायी,
चेहरे पर घिर लाली आयी।
देख प्रिया को अपने द्वार,
प्रियतम ने बढ़ थामे हाथ।
प्रिय-आलिंगन में निशा समाई,
भुला स्वयं को नई दुनिया बसाई।
चले संग जब दो राही साथ,
मिला विश्व को नवप्रभात।

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