कहानी: मुक्ति धन

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गंगा का जल हमेशा की तरह ठंडा होते हुए भी दीनदयाल जी को उसकी शीतलता का अहसास नहीं हो रहा था। उनका ह्दय तो क्रोधाग्नि से तप रहा था। प्रातः 5 बजे पैदल ही घर से निकलकर नित गंगा स्नान कर फिर गंगा मंदिर में आरती करने का नियम जो पिता जी के साथ बचपन से शुरू हुआ था वह आज 50 वर्ष बाद भी जारी था।
आज जब मन को संताप घेरे था तो फिर उसमंे गंगा मैय्या का ध्यान कहां समाता। बस जैसे तैसे नित्य क्रिया निपटाये घर की ओर तीव्र कदमों से चले जा रहे थे। अचानक रिक्शे वाले की आवाज से उनके बेचैन कदम थम गये। ‘‘बाबू जी कहां छोड़ दूं?’’ रिक्शे वाले का कहना ही था मानो मन में बहता क्रोध का लावा मुख के रास्ते बाहर आ गया। ‘‘हां हां क्यों नहीं मेरा धन तो तुम लोगों के लिए ही सुरक्षित है क्या मैने तुम्हें पुकारा था’’? रिक्शे वाला जो उनके हांफते कदमों को देखकर द्रवित हो गया था उनके क्रोध का उत्तर दिये बिना ही अपनी राह हो लिया।
घर आते ही आंगन में झाड़ू बुहारती अपनी पत्नी को देखकर क्षण भर के लिए वे द्रवित हुए कि इस उम्र में भी इन्हें मेहनत का काम करना पड़ता है। पर तुरन्त भौतिक बुद्धि ने ह्दय पर कब्जा जमा लिया कि चलो काम करते रहने से स्वास्थ्य ठीक रहता है बीमारी में व्यर्थ खर्च नहीं होगा।
पत्नी गायत्री जो उनकी सुख दुख की साथी थी उन्हें देखकर चाय चढ़ाने चली गयी। वे वही आंगन में तख्त पर बैठकर अपने पुत्र के साथ फोन पर हुए वार्तालाप को सोचते हुए फिर क्रोध में तपने लगे।
‘‘ पिता जी आपने फिर क्या सोचा?’’ अपने पुत्र अविनाश की बात पूरी होने से पहले ही दीनदयाल जी ने ऊंचे स्वर में कहा ‘‘मेरी धन सम्पत्ति तुम्हारे अनुसार व्यय के लिए नहीं है। इस भूमि के स्वप्न देखने बंद करो’’।
‘‘पर पिता जी इस पर बना शाॅपिंग काॅम्पलेक्स मेरा और अनिल का भविष्य सुरक्षित कर देगा। ‘‘पुनः बात काटते हुए दीनदयाल जी बोले अनिल का तो नाम भी मत लो वह विदेश में पहले ही अपना भविष्य सुरक्षित किये बैठा है। कहने के साथ ही उन्होनें फोन काट दिया।
सिंचाई विभाग में उच्च पद पर आसीन रहे दीनदयाल जी शुरू से एक ईमानदार नित नियम से रहने वाले व्यक्ति रहे थे। दो वर्ष पहले भी वह सेवामुक्त हुए थे। अपने तीनो बच्चों, दो बेटे व एक बेटी को यूं तो उन्होनें उच्च शिक्षा दिलाई पर धन खर्चने में थोड़ी कंजूसी बरतते थे। तीनो बच्चे विवाह उपरान्त अपनी दुनिया में व्यस्त थे। बेटे दूर थे, अवसरों पर ही मिलने आ पाते थे। बेटी उसी शहर में होने के कारण समय असमय आ जाती थी।
मित्व्ययता के कारण वह शहर से लगा एक भूमि खण्ड लेने में सफल हुए थे। वह उसका प्रयोग किसी धार्मिक निर्माण में करना चाहते थे। क्योंकि उनके अनुसार धार्मिक रूप से खर्चा धन ही उन्हें उनके मरर्णोपरान्त सही मुक्ति देगा।
इस तरह अनेक दिन बीत गये एक दिन सवेरे जब वह गंगा स्नान से लौट रहे थे तो एक बालक उनके सामने आकर सौ रूपये देने की विनती करने लगा। प्रायः किसी पर एक रूपया भी न खर्चने वाले दीनदयाल जी ने पता नहीं किस भावना से वशीभूत होकर उसे 100 रूपये दे दिये।
इस घटना को वह भूल चुके थे। एक माह बाद वह पुनः गंगा स्नान जाते हुए मुंह अंधेरे वह बालक फिर उनके सामने था। उनके चरण स्पर्श करते हुए बोला मैं आपके दिये रूपयों से पुस्तक खरीदकर परीक्षा उत्तीर्ण करने में सफल रहा।
दीनदयाल जी बहुत दिनो बाद ह्दय से मुस्कुराये थे। पिछले एक माह से चल रहे मानसिक द्वंद का समाधान जो मिल गया था।
तेज कदमों से गंगा के तट तक पहुंचे। स्नान करने के उपरान्त आचमन करते हुए बोले ‘‘हे गंगा मैय्या मैं अपने भूखण्ड पर एक पुस्तकालय का निर्माण कराकर अपना धन व जीवन समस्त बच्चों के पुस्तक निशुल्क पढ़ने हेतु अर्पित करूंगा और यही मेरा मुक्ति धन होगा।

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