निर्दलीय – कभी किंगमेकर, अब नहीं रहा लोगों का भरोसा, लगातार घट रही संख्या

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लखनऊ. ये माननीय होते तो निर्दलीय हैं, मगर निभाते हैं किंगमेकर की भूमिका। इन्हीं निर्दलीयों ने चंद्रभानु गुप्त सरकार को 11 दिन में ही गिरा दिया था। एक समय ऐसा भी था जब विधानसभा में इनकी संख्या 40 तक पहुंच गई थी, मगर दो दशक में ऐसी गिरावट आई कि ये दहाई तक भी नहीं पहुंच पाए। मौजूदा समय में तो इनकी संख्या घटकर तीन रह गई है। आिखर ऐसा क्यों? सियासी पंडितों का कहना है कि बदले सियासी माहौल में निर्दलीयों पर जनता का भरोसा कम होता जा रहा है।

आजादी के बाद शुरुआती तीन-चार विधानसभा चुनावों तक दलीय प्रत्याशियों के खिलाफ उतरा निर्दलीय अगर बड़ा चेहरा होता, तो लोग उसे तवज्जो देते। उस दौर में चेहरा मायने रखता था। तब राजनीतिक दलों की संख्या भी काफी कम थी और निर्दल प्रत्याशी के तौर पर राजा, जमींदार या नवाबों के अलावा समाजसेवा से जुड़े बड़े नाम वाले चेहरे भी उतरते थे। पर, मौजूदा समय में जातीय आधार पर राजनीतिक दलों की संख्या काफी बढ़ जाने से मतों का विभाजन भी जाति के आधार पर होने लगा है। इसलिए निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर जीतने वालों की संख्या काफी कम हुई है।

पिछले चुनावों के आंकड़ों को देखें तो निर्दलीय प्रत्याशियों की संख्या कम होने के बाद भी जीतने वालों की संख्या दो अंकों में होती थी। 1989 में 3710 में से 40 निर्दलीय प्रत्याशी चुनाव जीत कर विधानसभा पहुंचे थे। 1957 में 660 निर्दलीय प्रत्याशियों में से 39 विधायक चुने गए थे। ऐसे कई उदाहरण हैं, जब निर्दलीय विधायकों की संख्या 20 से अधिक हुआ करती थी। पर, वर्ष 2002 के बाद ऐसे विधायकों की संख्या लगातार घटती गई। 2002 के चुनाव में 2353 में से 16 निर्दलीय विधायक ही चुने गए। इसके बाद 2007 में 2581 में से 9, 2012 में 1691 में से 6 और 2017 में 1462 में से मात्र तीन निर्दलीय प्रत्याशी ही चुनाव जीतने में कामयाब हुए।

पहले विधानसभा चुनाव में जीते थे 14 निर्दलीय
चुनाव आयोग के आंकड़ों के मुताबिक 1952 में हुए पहले विधान सभा चुनाव में 1006 लोगों ने निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर भाग्य आजमाया था। इनमें से 14 जीतने में सफल हुए थे। 1957 में 39, 1962 में 31, 1969 में 37, 1974 में 5, 1977 में 16, 1980 में 17, 1985 में 23, 1989 में 40, 1991 में 7, 1993 में 8 और 1996 के विधानसभा चुनाव में 13 निर्दलीय प्रत्याशी जीते थे।

1967 में निर्दलीयों ने गिरा दी थी चंद्रभानु गुप्त की सरकार
वर्ष 1967 के चुनाव में कांग्रेस को 425 में से 199 सीट ही मिली थी। जनसंघ को 98 सीटें मिली थीं, जबकि 37 निर्दलीय प्रत्याशियों ने जीत दर्ज की थी। ऐसे में सरकार के गठन में इनकी भूमिका अहम हो गई थी। कांग्रेस विधायक दल के नेता चुने गए चंद्रभानु गुप्त ने 223 विधायकों का समर्थन होने का पत्र राज्यपाल को सौंपा। गुप्त ने सरकार तो बना ली, लेकिन कांग्रेसी विधायकों के टूटने और निर्दलीय विधायकों के विपक्षी खेमे से हाथ मिला लेने की वजह से सिर्फ 11 दिन में ही उनकी सरकार गिर गई।

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