जब तक अयोध्या तब तक मुलायम: नेताजी के बिना अधूरी रहेगी अयोध्या और सियासत की चर्चा, बदल गई थी राजनीतिक तस्वीर

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उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री स्व. मुलायम सिंह यादव का नाम राम की नगरी अयोध्या के साथ सदैव जुड़ा रहेगा। जब भी अयोध्या और सियासत की चर्चा होगी। मुलायम सिंह यादव के बिना वह अधूरी ही रहेगी। राजनीति में घटनाएं अल्पकालिक होती है। लंबे समय तक इनका प्रभाव जनता के जेहन में रह नहीं जाता लेकिन अयोध्या की घटना इसका अपवाद है। इसका असर घटना के तीन दशक बाद भी सियासत पर साफ तौर से महसूस किया जाता है। राम मंदिर आंदोलन और उससे उपजी सियासत ने सूबे की सियासी तस्वीर को ही नहीं बदला, देश की सियासत को भी बदल कर रख दिया। मुलायम सिंह यादव उसके अहम किरदार कहे जा सकते हैं। राम मंदिर आंदोलन और मुलायम सिंह यादव की सत्ता के बीच संघर्ष ने राजनीति के इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ दिया और उसका केंद्र अयोध्या रही।

मुख्यमंत्री के रूप में मुलायम सिंह यादव ने न केवल अपनी समाजवादी पार्टी को स्थापित बल्कि अप्रत्यक्ष रूप से भारतीय जनता पार्टी को सीधा लाभ पहुंचाया। अयोध्या में राम मंदिर को लेकर संघर्ष न होता तो न तो मुलायम सिंह यादव इतने ताकतवर नेता बनकर उभरते और न ही भारतीय जनता पार्टी को इतनी तेजी से बढऩे का मौका मिलता। वह सत्ता शिखर तक पहुंच जाती। राम मंदिर आंदोलन के जरिए देश में अपनी जड़े जमाने में जुटे संघ परिवार के लिए मुलायम सिंह यादव की कार्यप्रणाली ने बेहतर मौका जरूर दिया। अपवाद को छोड़ दिया जाए तो मुलायम सिंह यादव के नेतृ्त्व में इस एक घटना के बाद प्रदेश की सियासत में दो ध्रुव बने वह कमोवेश अब तक बरकरार हैं। देश के दूसरे राज्य भी इससे अछूते नहीं रहे। इसके पीछे एक ओर संघ परिवार था तो दूसरी ओर मुलायम सिंह यादव और इस विचारधारा से जुडे लोग।

मुलायम सिंह यादव की पहचान एक जुझारू नेता के रूप में पहले से ही रही है। सूबे का मुख्यमंत्री बनने के पहले भी उनके पैंतरे की चर्चा आज भी यहां पुराने सोशलिस्ट और समाजवादी नेता करते हैं लेकिन पांच दिसंबर 1988 को मुलायम सिंह यादव के सत्ता संभालने के लगभग डेढ़ साल बाद सियासत में वर्चस्व की जो जंग शुरू हुई। वह मुलायम सिंह यादव की सियासी पारी के लिए निर्णायक रही। अयोध्या उसका अखाड़ा बनी। इस जंग में एक सिरे पर मुख्यमंत्री के रूप में मुलायम सिंह यादव थे तो दूसरे सिरे पर संघ परिवार का आनुषंगिक संगठन विश्व हिंदू परिषद और सियासी फ्रंट भाजपा। मुलायम सिंह यादव की सत्ता की अपनी प्रतिबद्धता थी तो विहिप और भाजपा की अपनी। कोई एक दूसरे से पीछे हटने को तैयार नहीं था।

पूर्व मुख्यमंत्री के सियासत के बाद दुनिया को अलविदा कहने के साथ यहां लोगों के जेहन में वह मंजर तैर रहा है। सन् 1990 व 92 घटनाएं ताजा हो गई हैं। जिसकी चर्चा अयोध्या में चौक चौराहों से जगह-जगह सुनी जा सकती है। लोगों के जेहन का फ्लस बैक जुबान पर आ गया है। अयोध्या के प्रमुख स्थलों के साथ चाहे वह रमेश कुमार हो या फिर लखनऊ से आए हरिओम पांडेय। सब की जुबान पर मुलायम सिंह के साथ अयोध्या में सन 1990 की घटना है। विहिप ने अयोध्या में कारसेवा के लिए देश के कोने-कोने से लाखों कारसेवकों को 30 अक्टूबर 1990 को अयोध्या पहुंचने का आह्वान कर दिया। लगभग महीने भर पहले से ही दक्षिण से उत्तर तक के राम भक्त अयोध्या पहुंचने के लिए चल पड़े। जैसे-जैसे इनकी सूचना यूपी सरकार के पास पहुंचनी शुरू हुई। रास्ते बंद और गलियां तंग होने लगी। पखवारे भर पहले अयोध्या को आबाद क्षेत्र का टापू बना दिया गया। यहां सुरक्षा ऐसी कर दी गई कि परिंदा पर भी न मार सके। आम आदमी संगीनधारियों के साए में आ गया। मुलायमं सिंह यादव एक साथ दो मोर्चो पर काम कर रहे थे। एक ओर राम मंदिर आंदोलन के जरिए अपनी सियासी विश्वसनीयता को दूसरी ओर चार अक्टूबर 1992 को गठित समाजवादी पार्टी को एक सियासी दल के रूप में स्थायित्व प्रदान करना।

सत्ता और आंदोलन के बीच खिंची राम मंदिर के सहारे सियासत की लकीर गाढ़ी हो गई
सत्ता और आंदोलनकारियों की अग्नि परीक्षा का दौर यहीं से शुरू हुआ। साथ ही सत्ता के मुखिया के रूप में मुलायम सिंह यादव की भी अग्निपरीक्षा शुरू हो गई। तत्समय राजनीति के हल्के में कहा जाने लगा कि सीएम के रूप में मुलायम सिंह यादव फेल हुए तो उनकी राजनीतिक पारी समाप्त हो जाएगी। आंदोलनकारी विवादित स्थल के पास पहुंच कारसेवा के लिए कटिबद्ध थे। अयोध्या आने वाले सारे रास्तों बंद कर दिए गए। वाहनों का चलना बंद हो गया। आंदोलनकारियों की धरपकड़ शुरू हुई तो समानांतार रूप से समाज में दो धाराएं फूटनी शुरू हो गई। एक ओर राम मंदिर आंदोलन के पक्ष में जनमत तैयार होने लगा तो दूसरी ओर मुख्यमंत्री के रूप मेंं मुलायम सिंह के कार्यों का समर्थन करने वाला बड़ा धड़ा पुष्ट होने लगा।

प्रत्यक्षदर्शी बताते हैं कि पखवारे भर पहले अयोध्या आने वाले सारे हाइवे को सील कर दिया गया। बैरीकेडिंग करके सुरक्षा बलों और पुलिस का पहरा बैठा दिया गया। खुफिया सक्रिय कर दी गई तो पूरब, पश्चिम, उत्तर दक्षिण से आने वाले कारसेवकों ने गांव की पगडंडियों को पकड़ लिया। सैकड़ों किमी की पैदल यात्रा, छिले पांव और सूचना पर इन कारसेवकों की गिरफ्तारी के मंजर ने लोगों के दिल को झिंझोड़ डाला। गांव से शहर तक मुहल्लों में कारसेवकों के लिए लंगर ने जोश का जो माहौल पैदा किया। उसने जन के मन के गहरे तक आंदोलन को पैबस्त कर दिया।

धर्म से पर्दे के पीछे की सियासत की ओर बढ़ रहे आंदोलन में 30 अक्टूबर 1990 की तारीख भी आ गई लेकिन मुलायम सिंह यादव अपनी प्रतिबद्धता पर कायम रहे। अयोध्या को अर्धसौनिक बलों की पंक्तियों में जकड़ दिया गया। लेकिन अचानक लाखों कारसेवक तीन किमी परिधि की अयोध्या में दाखिल हो जाते हैं । जय श्रीराम के नारों के बीच विवादित स्थल की ओर कूच किया तो प्रशासन के हाथ पांव फूल गए। अंत में सीएम मुलायम सिंह यादव की प्रतिबद्धता का आखिरी हथियार गोलियों का प्रयोग इन्हें रोकने के लिए कर दिया गया। अजेय अयोध्या रक्त रंजित हुई कई की जान गई तो कुछ घायल हो गए। सत्ता और आंदोलन के बीच खिंची राम मंदिर के सहारे सियासत की लकीर गाढ़ी हो गई लेकिन अभी अयोध्या का युद्ध थमा नहीं, सत्ता बल के विरोध में कारसेवक एक बार फिर दो नवंबर कारसेवा के लिए बढ़ चले। आंदोलन का यह चरम था।

लाखों की संख्या में डटे कारसेवक सत्ता शक्ति के दुरुपयोग मान उसे मजबूर करने पर अडिग थे लेकिन फिर वहीं दोहराया गया। सुरक्षा बलों की गोलियों की तड़तड़ाहट ने अयोध्या में कोहराम मचा दिया। इस बार पहले से ज्यादा की जान गई लेकिन सियासत की अगुवाई में सियासत की दो धाराओं का प्रवाह अब पूरी रौ में आ गया। एक के नेता के रूप में मुलायम सिंह यादव एक प्रतिबद्ध, अडिग और वायदे से न मुकरने वाले नेता के रूप में स्थापित हो गए। अल्पसंख्यक समुदाय के साथ धर्म निरपेक्षता की वकालत करने वालों ने उन्हें अपना नेता मान लिया तो दूसरी ओर मंदिर आंदोलन के खिलाफ उनके सख्त रवैय्ये से हिंदू समुदाय के साथ संघ विचार धारा के लोगों में विहिप के साथ चल रहे भाजपा के पक्ष में धुव्रीकरण शुरू हो गया। हलांकि इसके बाद मुलायम सिंह यादव की सरकार चली गई।

अयोध्या आंदोलन के जरिए सियासी ध्रुवीकरण को मिली दिशा
सियासत में धुव्रीकरण की राजनीति के लिए भी मुलायम सिंह यादव को याद किया जाएगा। अयोध्या के राम मंदिर आंदोलन के जरिए उन्होंने धुव्रीकरण को जो दिशा दी, सत्तासीन भाजपा को उसका सीधा सियासी लाभ मिला। सन 1990 में कारसेवकों के अयोध्या आह्वान के समय मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री न होते तो शायद भाजपा के साथ समाजवादी पार्टी को वह मुकाम न मिलता जो अब तक रहा है।

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