सियासी करंट : चुनावी नैया पार लगाने के लिए मजबूत पतवार बनी बिजली, हर तरफ वायदों की बयार

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लखनऊ. जब बिन मांगे चांद-तारे मिलें, समझ लो चुनावी मौसम है। कसमें-वादों का मौसम है। बेकरारों का मौसम है। बेकरारों को तो करार तभी आएगा, जब आप खुश हों। चुनावी बिसात बिछी है। दांव पर बहुत कुछ है। न केवल नेताओं की पद-प्रतिष्ठा, हम-आप भी। हम-आप इसलिए, क्योंकि जिस खजाने के दम पर वादे किए जाते हैं, वो खजाना आपकी मेहनत से भरता है। काश! चुनावी वादों के साथ एक फिजिबिलिटी रिपोर्ट भी देने की व्यवस्था होती। यह भी बताया जाता कि पैसा आएगा कहां से। बहरहाल, ये सियासत है। सूरदास की ये पंक्तियां बरबस याद आती हैं- मैया, मैं तो चंद-खिलौना लैहों/ जैहों लोटि धरनि पर अबहीं तेरी गोद न ऐहों। जनता भले ही चंद्र खिलौने के लिए न लोटे, पर नेता दे-देकर लहालोट हुए जा रहे हैं।

वैसे तो बिजली घरों को रोशन करती रही है, मगर सियासत से जुड़ जाए तो ऐसा करंट पैदा करती है कि चुनावी नैया पार लगाने की मजबूत पतवार तक बन जाती है। अब यूपी में ही देख लीजिए। विपक्षी दलों ने मुफ्त बिजली देने का दांव चला तो सत्तारूढ़ दल भाजपा को इसकी काट ढूंढनी पड़ गई। हालात को भांपते हुए किसानों की बिजली दर सीधे आधी करने का एलान कर दिया गया।

प्रदेश की सियासत में बिजली अब एक अहम मुद्दा बन चुकी है। पहली बार बिजली 1977 में चुनावी मुद्दा बनी और सियासत में उसका करंट अब तक दौड़ रहा है। क्या सत्तापक्ष और क्या विपक्ष… सत्ता हासिल करने की दौड़ में सभी बिजली का करंट दौड़ाते हैं। इसका ऐसा असर दिखता है कि कोई भी दल इसकी अनदेखी करने की हिम्मत भी नहीं जुटा पाता है। इस बार के चुनाव में भी बिजली पर ऐसा ही सियासी घमासान छिड़ा है।

इंदिरा ने रायबरेली को दिया था वीआईपी जिले का दर्जा
प्रदेश में बिजली तब मुद्दा बनी जब 1977 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी रायबरेली से चुनाव हार गईं। इंदिरा के प्रधानमंत्री रहते रायबरेली को 24 घंटे बिजली मिलती थी, मगर हारते ही अन्य जिलों की तरह 10-12 घंटे की कटौती होने लगी। जानकारों का कहना है कि लोगों ने इंदिरा को हराने वाले राजनारायण को उलाहना दिया तो उन्होंने हाथ खड़े कर दिए। बिजली क्षेत्र से जुड़े पुराने लोग बताते हैं कि प्रधानमंत्री रहे पं. जवाहर लाल नेहरू फूलपुर और लाल बहादुर शास्त्री इलाहाबाद से निर्वाचित होते रहे, लेकिन इनके क्षेत्रों में बिजली अन्य जिलों की तरह ही दी जाती थी। इंदिरा के 1971 में चुनाव जीतने के बाद पहली बार रायबरेली को बिजली के मामले में वीआईपी जिले का दर्जा मिला था।

1989 के बाद बिजली मुद्दा बनती गई
जनता पार्टी के बाद जब कांग्रेस फिर सत्ता में आई तो बिजली के लिहाज से उन जिलों को फिर वीआईपी श्रेणी में रखा जाने लगा जो मुख्यमंत्री का गृह जनपद होता था। वर्ष 1989 में प्रदेश की सत्ता से कांग्रेस के बेदखल होने के बाद बिजली सियासी मुद्दा बनती चली गई। मुलायम सिंह की सरकार रही हो या फिर कल्याण सिंह, मायावती, राजनाथ सिंह या अखिलेश यादव की, सभी में मुख्यमंत्री व ऊर्जा मंत्री के क्षेत्र बिजली आपूर्ति के मामले में वीआईपी श्रेणी में रखे जाने लगे। सत्ता पर मजूबत पकड़ रखने वाले चुनिंदा नेताओं के क्षेत्रों में भरपूर बिजली दी जाती, जबकि बाकी क्षेत्रों में हाल बेहाल रहता था।

…और बिजली का वीआईपी दर्जा खत्म हो गया
सत्ता परिवर्तन के साथ ही आपूर्ति की प्राथमिकताएं बदलती रहीं। 2017 में प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनी तो बिजली का वीआईपी दर्जा समाप्त कर दिया गया। पूरे प्रदेश में समान रूप से बिजली देने के साथ-साथ प्रमुख धार्मिक शहरों व स्थलों में 24 घंटे आपूर्ति का एलान कर दिया। फायदा यह हुआ कि इसमें गोरखपुर और मथुरा भी आ गए जो मुख्यमंत्री और ऊर्जा मंत्री के क्षेत्र हैं। अलग से वीआईपी दर्जा दिए बगैर ही दोनों जगह 24 घंटे बिजली मिलने लगी।

बिजली विशेषज्ञों का कहना है कि यह फैसला इसलिए भी कारगर रहा, क्योंकि प्रदेश में बिजली की उपलब्धता में भी इजाफा हुआ। पिछली सरकारों में नई परियोजनाएं लगाने की शुरू हुई पहल परवान चढ़ती गई जिससे उपलब्धता बढ़ी और शहरों से लेकर गांवों तक पर्याप्त बिजली दी जा रही है।

सरकारी खजाने पर टिका फ्री बिजली का दारोमदार
विशेषज्ञों का कहना है कि जहां तक मुफ्त बिजली का सवाल है तो इसका सरोकार बिजली की उपलब्धता से ज्यादा सरकारी खजाने से है। उत्तर भारत के पंजाब समेत दक्षिण भारत के ज्यादातर राज्य किसानों को मुफ्त बिजली दे रहे हैं। इसके एवज में सरकारें बिजली निगमों व बोर्डों को सब्सिडी देती हैं। प्रदेश में मुफ्त बिजली कभी नहीं दी गई।

इस बार सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने उपभोक्ताओं को 300 यूनिट और किसानों को सिंचाई के लिए मुफ्त बिजली का एलान किया है। इसके लिए सपा फॉर्म भी भरा रही है।
बहरहाल, विशेषज्ञों का कहना है कि इसके लिए लगभग 35,000 करोड़ रुपये अतिरिक्त बजट की जरूरत होगी। जानकारों का कहना है कि सरकार रियायती बिजली के लिए अभी 11,000 करोड़ रुपये की सब्सिडी दे रही है। करीब 24,000 करोड़ रुपये का इंतजाम और करना पड़ेगा।

दिल्ली मॉडल पर दे सकते हैं फ्री बिजली
बिजली विशेषज्ञों का कहना है कि केजरीवाल सरकार ने दिल्ली में मुफ्त बिजली दी है। उसी मॉडल पर यहां भी दी जा सकती है। इसके लिए फिजूलखर्ची पर अंकुश लगाना होगा। लंबे समय तक प्रदेश के बिजली क्षेत्र से जुड़े रहे एक अधिकारी तो आप नेता संजय सिंह के इस तर्क से सहमति जताते हैं कि जब सांसदों को 4000 यूनिट बिजली प्रतिमाह मुफ्त दी जा सकती है, तो यहां 300 यूनिट देने में क्या दिक्कत है? वित्तीय प्रबंधन में सुधार और महंगी बिजली खरीद पर रोक लगाकर यह किया जा सकता है।

बंद हों मुफ्त वाली घोषणाएं
पहले थोड़ी-बहुत रियायतें व सहूलियतों का एलान किया जाता था, लेकिन अब तो मुफ्त देने की होड़ है। बड़ा सवाल यह है कि जो घोषणाएं की जा रही हैं, क्या उसे सरकार अपने पार्टी फंड से पूरा करेंगी? तात्कालिक तौर पर भले ही राजनीतिक दलों को इसका फायदा हो सकता है, लेकिन इसके दूरगामी नतीजे बहुत अच्छे होने वाले नहीं हैं। पैसा तो जनता का ही है। इस तरह की घोषणाएं बंद होनी चाहिए। – अभय सरन कपूर, पूर्व सीएमडी, राज्य विद्युत उत्पादन निगम

सपा कर रही राजनीति, हमने तो आधी कर दीं कीमतें
सपा समेत सभी विपक्षी दल बिजली को लेकर राजनीति कर रहे थे। सपा हर साल बिजली दर बढ़ाती थी, जबकि हमने व्यवस्था को बदला है। किसानों की बिजली दर आधी कर हमने ईमानदारी से काम शुरू किया है। सरकार भविष्य में भी सस्ती बिजली देने के लिए संकल्पबद्ध है। – श्रीकांत शर्मा, ऊर्जा मंत्री

बिजली कंपनियों को राजस्व की गारंटी मिले
दिल्ली में करीब 38 लाख उपभोक्ताओं का बिल शून्य आता है। अगर यूपी में भी ऐसा होता है, तो बड़ी संख्या में उपभोक्ताओं को इसका फायदा होगा। अलबत्ता ऐसा कोई कदम उठाने से पहले सरकार को यह गारंटी देनी चाहिए कि मुफ्त बिजली के एवज में बिजली कंपनियों को राजस्व की गारंटी मिले। सरकार इसका भुगतान सुनिश्चित करे, ताकि बिजली कंपनियां घाटे में न रहें।
-शैलेंद्र दुबे, चैयरमैन, ऑल इंडिया पावर इंजीनियर्स फेडरेशन

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